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वेदों का सर्व-युगजयी धर्म : वेदों की मूलभूत अवधारणा

By: डॉ. श्रीकान्त सिंह

जैसे पदार्थ एवं उर्जा को अलग-अलग अविनाशी एवं मात्र रूप बदलने वाला माना गया था परन्तु ये सापेक्षता (रिलेटिविटी) के सिद्धांत द्वारा सम्बद्ध कर दिए गए, उसी प्रकार अचेतन एवं चेतन को भी वेद-ज्ञान सम्बद्ध कर देता है । अर्थात् चेतन को अचेतन और अचेतन को चेतन में परिवर्तित किया जा सकता है । यह वेदों के प्रयोग से संभव है । जैसे पदार्थ को उर्जा में बदलने के लिए एक परमाणु बम में क्रांतिक मात्रा में रेडियो-एक्टिव पदार्थ चाहिए, वैसे ही अचेतन को चेतन में बदलने के लिए जो संरचनाएं चाहिए उनका वर्णन वेदों में प्राप्त होता है । अधिक क्या कहें वेद मानव मात्र के कल्याण के लिए ईश्वर का अनमोल उपहार है । पुस्तक के मुख्य विषय वेद का निहितार्थ , वेद की मूल अवधारणा, वेद के साहित्य का स्वरूप, सामवेद, यजुर्वेद में चैतन्यानुभूति द्वारा ईश्वरानुभूति, उपसंहार इत्यादि हैं ।...

जिनमें ‘इन्द्र’ को ऋषि अपने यज्ञ स्थल पर आराधना के ऋचाओं के द्वारा बुलाता है और कहता है कि हे 'इन्द्र’ आप मेरे यज्ञ में पधारिये आपका स्वागत और अभिनन्दन है। आपके लिए ‘सोमरस' हिमालय से लाई हुई सोम वल्लरी को पत्थरो से कूँच कर, निचोड़कर सोमरस को छन्ने से छानकर दुग्ध और शर्करा मिलाकर, आपके लिए यज्ञशाला में रखा गया है। इसी सोमरस को पीकर आप ने वृत्रासुर को मारा था और उसके द्वारा सरिताओं को पर्वतों से अवरूद्ध हुआ मार्ग खोला था। आप हमारे यज्ञ में पधारिए, हमारा कल्याण कीजिए। भौतिक रूप में ‘सोमरस' की अवधारणा करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक भौतिक पेय पदार्थ है जो शक्तिवर्धक है। इसे 'इन्द्र’ पीकर शक्तिमान होता है। किन्तु आगे ऋषि ‘सोमरस' की भी अभ्यर्थना करता है और उसी प्रकार आदर पूर्वक ‘सोमरस' को 'देवता' कह कर पुकारते हुए कहता है कि हे ‘सोमरस’ सोम देवता आप मेरे यज्ञ में पधारिए मेरा कल्याण कीजिए। आपको ही ग्रहण करके देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर को मारा था। अतः यहाँ स्पष्ट रूप से ऋषि ‘सोमरस' में उसके चैतन्य स्वरूप की अनुभूति करके इस प्रकार की ऋचा द्वारा ‘सोम देवता’ का आवाहन करता है। यदि हम ऐसा चैतन्य स्वरूप सोम रस को न माने केवल भौतिक पदार्थ माने तो ऋचा हमारे समझ से परे हो जाती है और हमारा भौतिकता के दृष्टिकोण वाला पौरूष हमे इसके तात्पर्य को न...

वेद का निहितार्थ , वेद की मूल अवधारणा, वेद के साहित्य का स्वरूप, सामवेद, यजुर्वेद में चैतन्यानुभूति द्वारा ईश्वरानुभूति, उपसंहार

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